कहीं ‘राम’ की वजह से ‘टहल’ ना जाये रांची में ‘बीजेपी’
Ranchi: इतिहास गवाह है कि श्री राम की वजह से बीजेपी का कई बार बेड़ा पार हुआ है. 2019 के लोकसभा चुनाव के घोषणा पत्र में भी बीजेपी ने श्री राम (राम मंदिर) का जिक्र किया है.
लेकिन इस बार खतरा यह बना हुआ है कि रांची लोकसभा सीट से छह बार बीजेपी का बेड़ा पार लगाने वाले राम (रामटहल चौधरी) ही कहीं बीजेपी का बंटाधार ना कर दें.
चुनावी समीकरण और बीजेपी की मौजूदा स्थिति को देखते हुए चुनावी पंडित इस आशंका पर बल दे रहे हैं. इस बार बीजेपी ने कभी किसी चुनाव का तजुर्बा ना रखने वाले संजय सेठ पर दांव खेला है. संजय सेठ रांची लोकसभा के हिसाब से शहरी चेहरा हैं.
खादी ग्रामोद्योग की वजह से शहर में इनकी पहचान है. लेकिन ग्रामीण क्षेत्र की बात की जाये तो संजय सेठ को उन इलाकों में काफी मेहनत करने की जरूरत है.
नहीं मिला सेठ को राम का आशीर्वाद
बीजेपी से टिकट कटने के बाद अपने बागी तेवर के लिए फिलवक्त पहचान बनाने वाले रामटहल चौधरी ने चुनाव लड़ना तय किया है. उन्होंने घोषणा की है कि वो 16 अप्रैल को नामांकन भरेंगे. इस बीच संजय सेठ उनका आशीर्वाद लेने के लिए उनके पास पहुंचे.
बीजेपी से पुराने रिश्ते की दुहाई देकर मदद करने और आशीर्वाद देने का आग्रह किया. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. श्री चौधरी ने सेठ को आशीर्वाद देने से मना कर दिया.
ऐसे में संजय सेठ की मुश्किल काफी बढ़ गयी है. क्योंकि छह बार से जीत का मंत्र जानने वाले रामटहल चौधरी इस बार भले ही उस मंत्र से जीत दर्ज ना कर पाए लेकिन, किसी को हरा तो जरूर सकते हैं.
महतो वोट है निर्णायक
रांची लोकसभा क्षेत्र में कुर्मी वोटरों के आशीर्वाद के बिना जीतना नामुमकिन माना जाता है. रामटहल चौधरी कुर्मी समुदाय के एक चर्चित चेहरा हैं. छह बार की जीत में इसी समुदाय का साथ सबसे ज्यादा रहा है.
दस लाख से ज्यादा वोटरों की आबादी वाली रांची लोकसभा में करीब पांच लाख कुर्मी वोटर हैं. इनमें से आधे वोटरों का वोट किसी को मिल जाए, तो जीत और हार का समीकरण बनता दिखने लगता है. रामटहल चौधरी जानते हैं कि इन वोटरों को कैसे अपनी ओर करना है.
अगर रामटहल चौधरी अपनी इस रणनीति में कामयाब होते हैं, तो सबसे ज्यादा मुश्किल बीजेपी को होती नजर आती है. वहीं कांग्रेस को इसका फायदा होता दिख रहा है. इसलिए कहा जा रहा है कि रामटहल कहीं इस बार बीजेपी को टहला ना दें
राम को मनाने वाला बीजेपी में कोई विश्वामित्र नहीं
जिन्होंने गोविंदाचार्य और कैलाशपति मिश्र को बीजेपी में राजनीति करते हुए देखा है, उनका मानना है कि पहली बार ऐसा नहीं हुआ है कि किसी उम्मीदवार का टिकट कटा हो. लेकिन उस वक्त टिकट काटने वाले को मनाने के लिए एक अलग तरह की राजनीति की जाती थी.
बताया जाता था कि क्यों टिकट कटा. समझाया जाता था कि टिकट काटने का मुआवजा उन्हें क्या दिया जाएगा. लेकिन झारखंड में फिलवक्त बीजेपी की जो स्थिति है, उसमें कहीं भी एक ऐसा नेता है जिसकी बात में इतना दम हो कि कार्यकर्ता उसे सर आंखों पर रख लें.
पूरा प्रदेश कार्यालय दो लोगों के लगाम में पिछले पांच साल से है. इससे पार्टी कार्यकर्ताओं में या तो शिथिलता आ गयी है, या फिर उन्होंने विरोध के सुर अंदर ही अंदर बुलंद किये हैं. अगर पार्टी ने इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया तो इसका खामियाजा बीजेपी को भुगतना पड़ सकता है.
टीम की कमी की वजह से हो सकती है सेठ को परेशानी
बीजेपी झारखंड में भले ही एक बड़ी पार्टी हो. लेकिन पिछले कुछ उपचुनावों के नतीजे बताते हैं कि कैसे सही रणनीति ना होने की वजह से बीजेपी को परेशानी हुई है. वही हाल इस बार रांची में होता दिख रहा है.
संजय सेठ भले ही बीजेपी से काफी दिनों से जुड़े हुए हैं. लेकिन पार्टी से चुनाव लड़ने का मौका उन्हें अब जाकर मिला है. जिस तरह से रांची जैसे बड़े लोकसभा में कांग्रेस के उम्मीदवार सुबोधकांत सहाय और निर्दलीय चुनाव लड़ रहे रामटहल चौधरी के पास एक टीम है, वैसी टीम संजय सेठ के पास नहीं है.
साथ ही उनके विरोधी सुबोध कांत सहाय को लोकसभा चुनाव का तजुर्बा भी है. ऐसे में बीजेपी की राह रांची में बहुत आसान नहीं मानी जा रही है. जीत के कई तरह के समीकरणों को गढ़ने की जरूरत है.
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